.Short Story | ए टी एम
- Shikhar Sumeru
- Jul 9, 2021
- 9 min read
Updated: Aug 5, 2021
A note about 'A Kill at Kilbury' - our regular serialized story for Fridays.
ATM : A Short Story
Copyright © 2021 Shikhar Sumeru
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This is a work of fiction. Names, characters, places and incidents either are products of the author’s imagination or are used fictitiously. Any resemblance to actual events or locales or persons, living or dead, is entirely coincidental.
ए टी एम
"भैय्या, ये वाला नया खुला है क्या? अपने ही शहर के अजनबी कोनों में अपने बैंक का एटीएम ढूंढना भी भुस के ढेर में सुई ढूंढने जैसा है। बड़ी देर से कोशिश कर रहा था; अब जा के ये मिला है," गीले माथे से पसीना पोंछते हुए मैंने हांफती आवाज़ में एटीएम गार्ड से कहा।
बलिष्ठ डील-डॉल और रोयेंदार धनुषाकार मूंछों वाले उस लम्बे कद के व्यक्ति ने, जिसकी उम्र का अंदाज़ा लगाना मुझे मुश्किल जान पड़ता था, मुझे सर से पाँव तक घूरा,और फिर मुस्कुरा कर, मानो मेरी हालत पर हमदर्दी-सी जताते हुए जवाब दिया, "चलिए, आख़िरकार आपको मंज़िल मिल ही गयी। आइये, अंदर आ जाइए। काफ़ी गर्मी खा लिए; अब आपको कोई परेशानी नहीं होगी। अब यहीं से आप अपना सारा खाता संभाल सकते हैं।"
"थैंक गॉड!" मैंने राहत की साँस लेते हुए कहा और आधे दरवाज़े को पूरा खोलता हुआ अंदर दाख़िल हुआ।
"मालिक को तो ये करना ही था। वो सबके लिए करते हैं," हाथों को आसमान की तरफ उठाते हुए वह बोला।
"कौन मालिक, भैय्या? क्या कर दिया उन्होंने ऐसा? इतनी दूर तो एटीएम बनाया है! और वैसे मालिक-वालिक कुछ नहीं हैं वो; जनता का ही तो पैसा है। तो जनता हुई ना मालिक," मैंने आँखों को कुछ तरेरते हुए उसे घूरा।
"सबके मालिक, साहब। इस बैंक के, आपके, मेरे, सबके," स्पष्ट करते हुए और हाथों को आसमान की तरफ दुआ या प्रणाम में उठाता हुआ वह बोला, "वो मालिक! वो तो सबका भला करते हैं, बिना भेदभाव किये।"
"अच्छा, अच्छा, वो तो है," कहते हुए मैंने अपने शरीर से उसकी आँखों और एटीएम नंबर-पैड के बीच में दीवार सी बनाने की कोशिश की। बड़बोले सिक्योरिटी गार्ड हमदर्दी की आड़ में कैसे आपका पिन देखने की कोशिश करते हैं, ये क़िस्से मैंने सुन रखे थे।
एटीएम मशीन को देखते हुए मैं बुदबुदाया, "ये नए स्टाइल की मशीनें भी ना! खाक़ 'यूज़र-फ्रेंडली' हैं ये; जाने कार्ड कहाँ से अंदर जायेगा!"
आखिरकार खोजते-खोजते मैंने स्लॉट ढूंढ निकाला।
"ये क्या मज़ाक है!" स्क्रीन को देखकर मैं लगभग उछलते हुए चिल्लाया, "ओवरड्राफ्ट कैसे चला गया?"
"क्या हुआ, साहब?" बिना मेरी ओर देखते हुए गार्ड ने पूछा।
"वो ओवर... मतलब बैलेंस ज़ीरो से नीचे चला गया है; इस बेवक़ूफ़ मशीन के मुताबिक़ 'मुझे' बैंक को पैसे देने हैं, बैंक को मुझे नहीं।"
"ऐसा होना तो नहीं चाहिए, साहब। आदमी एक बार को झूठ बोल सकता है, मशीन झूठ थोड़े ही बोलेगी!"
"अरे क्या बात कर रहे हो आप। मेरी सारी ज़िंदगी की कमाई ग़ायब हो गयी और आप इस घटिया मशीन की साइड ले रहे हो। ये साला ब्रांच ही फ्रॉड लगती है मुझे। जाने कैसे-कैसे फ्रॉड आ गए हैं! पहले कार्ड फ्रॉड, फिर यु पी आई फ्रॉड, फिर QR कोड से फ्रॉड --- और अब ये नया --- नेगेटिव बैलेंस वाला फ्रॉड..कहाँ बैठते हैं आपके मैनेजर?" गुस्से में तमतमाते हुए मैंने गार्ड को खरी-खोटी सुनाते और लताड़ते हुए पूछा।
"मैनेजर साहब तो नहीं होंगे शायद। उन्हें फ़ुर्सत कहाँ कि हर बैंक आने वाले को सही-गलत समझाते रहें? आप अकेले थोड़े ही हैं जिसे लगता है कि मशीन पागल है, नफ़ा-नुकसान नहीं समझती।"
"क्या मतलब? आप लोग खुले आम लूट मचाओगे और कोई ज़िम्मेदारी लेने वाला भी नहीं? इतनी आलीशान ब्रांच खोल रखी है, कोई बड़ा अफ़सर नहीं यहाँ?"
"मुलाज़िम पर काहे बिगड़ते हैं, साहब? हम तो बस आर्डर पूरा करते हैं। ऊपर से जो कहा, सो हमने किया।"
"तो वही तो मैं पूछ रहा हूँ भाई मेरे, कहाँ बैठते हैं वो तुम्हारे 'ऊपर' वाले? तुमने तो कहा मैनेजर हैं नहीं?" झुंझलाते हुए मैंने 'आप' से 'तुम' की दूरी तय की।
"ये मैंने कब कहा, साहब? मैंने तो बस ये कहा कि मैनेजर साहब ख़ुद इस काम के लिए तलब नहीं किये जा सकें शायद।"
"तो फिर?" आवाज़ को बमुश्किल काबू में करते हुए मैंने पूछा, "एक तो ये गर्मी और पसीना, ऊपर से एक नयी मुसीबत।"
"देखिये, आपके माथे का तो मैं कुछ नहीं कर सकता; वो आपको खुद ही पोछना होगा। आपके खाते की जहाँ तक बात है, तो आप चाहें तो चीफ़ अकाउंटेंट साहब से मिल लीजिये। बड़े हिसाबी आदमी हैं। सारे ग्राहकों की सब लेन-देन का ब्योरा होता है उनके पास। एक कौड़ी का भी हेर-फेर हो तो उनकी नज़र से बच नहीं सकता।" समझाते हुए गार्ड ने कहा।
और शायद मेरे माथे से रिसते पसीने को देखते हुए जोड़ा, "वैसे बैंक के अंदर आपको गर्मी परेशान नहीं करेगी; आप चले जाइये।"
"और कहाँ मिलेंगे ये 'हिसाबी' भाई साहब?" बैंक के बाहर सड़क पर बढ़ती भीड़ को देख कर मैंने पूछा।
"आप अंदर चले जाइये, दाहिने हाथ की तरफ पहला कमरा, सड़क से लगा हुआ, वो शीशे वाली खिड़की देख रहे हैं ना? वो वाला, उन्हीं का है।"
"नाम क्या है उनका?" मैंने कंप्लेंट डालने का पूरा मन बनाते हुए पूछा।
"अरे आपको उनका ऑफिस पूछना नहीं पड़ेगा। सामने ही दिख जायेगा। गुप्ता जी करके हैं अगर आपको फिर भी समझ ना आये तो....."
"थैंक यू वैरी मच!" व्यंग्यात्मक लहज़े में कहता और उसकी बात काटता मैं बाहर निकला। मेरे सर में गर्मी और सड़क पर भीड़ दोनों बढ़ रहे थे। जैसे-जैसे दिन चढ़ रहा था, भीड़ और गर्मी दोनों का बढ़ना लाज़मी ही था।
"हेलमेट?" बैंक के अंदर क़दम रखते ही मुझे अहसास हुआ कि कुछ भूला हूँ, लेकिन वापस गर्मी में जाने की हिम्मत नहीं पड़ी।
'आदतन मैंने अपनी बुलेट से ही बंधा होगा। और हद से हद होगा, तो गार्ड के पास छोड़ा होगा। जाते हुए ले लूंगा। पहले ये मुसीबत तो निपटे, सारा कमाया-धमाया सब चौपट; लाखों का मामला है!' मैंने सोचा।
गार्ड के बताये रास्ते पर जाते ही मुझे गुप्ता जी का ऑफिस मिल गया। हालांकि ऐसे बैंक में भीड़-भाड़ थी काफी, शायद लोग गर्मी से बचने के लिए अंदर सोफे पर पसरे हुए थे, लेकिन गुप्ता जी का ऑफिस खाली ही था। अब कुछ गर्मी भी कम थी; एसी चल रहा था शायद। लेकिन माथा कुछ गीला था।
आदतन पसीना पोछते हुए मैं ऑफिस में दाखिल हुआ।
"आइये, आइये, महानुभाव, आइये। बैठिये! मैं आपका ही इंतज़ार कर रहा था," लगभग पचास -- लेकिन उससे ज़्यादा नहीं -- के एक संभ्रांत से व्यक्ति ने मेरे अंदर आते ही मुझे गर्मजोशी से बैठाते हुए कहा।
ऑफिस आलिशान तो नहीं था, लेकिन सुसज्जित ज़रूर था। डेस्क के ठीक पीछे शीशे की आदमकद खिड़की थी, जहाँ से मैं सड़क की बढ़ती भीड़ के कारण अपनी बुलेट नहीं देख पा रहा था; दाहिनी ओर करीने से कागज़ी दस्तावेज़, फाइलें आदि रखे हुए थे; और बांयी ओर के शेल्फ़ पर छोटी-छोटी अनगिनत हार्ड ड्राइव रखी हुई थी।
"मेरा इंतज़ार ? यानी के आपको पता है क्या हुआ है?" ताज्जुब और गुस्से में मैंने कहा।
"जी हाँ, सर। वो हमारा दूत जो खड़ा है बाहर," खिड़की से एटीएम चैम्बर की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा।
"क्या मतलब?"
"अरे वो मैंने गार्ड को आपसे बहस करते हुए देख लिया था। माफी चाहता हूँ, वो कुछ बड़बोला है। काम दिया है उसे निगरानी का, और एडवाइजर बना फिरता है।"
मेज़ पर रखे दो मॉनिटर वाले सिस्टम की तरफ़ इशारा करते हुए चीफ़ अकाउंटेंट ने जोड़ा, "ये दो मॉनिटर वाला सुपर कंप्यूटर है ना आपके सामने जो, ये सब मॉनिटर करता है। एटीएम पर होने वाली गलतफहमियों से परेशान होकर, फ्रॉड वगैरह से त्रस्त-दुखी होकर, या बस गर्मी से बचने को भी, जो अशांत आत्माएं अंदर आती हैं उनके लिए मुझे अलर्ट भी देता है।"
बनावटी से लहज़े में गुप्ता जी ने अपनी और अपने सिस्टम की तारीफ करते हुए बात पूरी की।
"तो आप मानते हैं कि फ्रॉड हुआ है? मेरी पूरी सेविंग्स, सारी जमा पूंजी ग़ायब है, आपके और आपके 'सुपर कंप्यूटर' की नाक के नीचे से?" मौका पाते ही आक्रामक होते हुए मैंने गुप्ता जी और उनके 'सिस्टम' पर निशाना साधा।
मुस्कुराते हुए गुप्ता जी उठे और हार्ड-ड्राइव की लाइब्रेरी पर अपनी उंगली इस तरह फिरने लगे मानो कोई ख़ास ड्राइव ढूंढ रहे हों। मेरी नज़रों को अपनी उंगली पर घूरता पा, फिर से अपने सिस्टम का बखान करते हुए बोले, "अब इतनी ज़्यादा जनता है आजकल, क्या बताएं; आप अकेले तो हैं नहीं जिसकी ज़िंदगी भर की कमाई हमारे पास है। डाटा इतना बढ़ गया है, तो फाइलों की जगह हार्ड ड्राइव ने ले ली है।
आखिरकार एक ड्राइव पर आकर उनकी उंगली रुकी। उन्होंने ड्राइव पर अपनी उंगली की जुम्बिश की, और दो-तरफ़ा मॉनिटर पर हल्की सी हरकत हुई। "देखें आपके खाते में फ्रॉड हुआ है, या कोई पुराना लोन है, जिसने आपके खाते को नेगेटिव बैलेंस में पहुंचा दिया है। आपको आपके स्क्रीन पर काफी कुछ वही इनफार्मेशन वही दिखेगी जो मैं अपने स्क्रीन पर देख पा रहा हूँ।"
"अभी तो सब खाली है। ... मेरे खाते की तरह!" कटाक्ष करते हुए मैं बोला।
"जी जनाब, सिक्योरिटी चेक नाम की भी कोई चीज़ है। हिसाब का पक्का हूँ। आज तक किसी के खाते की बदौलत किसी और का नुक्सान नहीं होने दिया मैंने। 'एम्प्लोयी ऑफ़ द ईयर' हूँ , जाने कितने इयर्स से," मेज़ पर रखे प्रमाणपत्र की और इशारा करते हुए वो बोले।
'एक तो चोरी, ऊपर से सीनाज़ोरी। मुझे सर्टिफिकेट की धौंस! एस्कैलेशन करना हमें भी आता है बच्चू!' मैंने मन ही मन सोचा और प्रमाण पत्र को पढ़ते हुए अगला पैंतरा फेंका, "तो श्रीमान धर्मराज ठाकुर आपके मैनेजर हैं! याद रखियेगा, चित्रेश बाबू! अगर गड़बड़ी हुई, तो मैं मिस्टर ठाकुर तक जाऊंगा, या शायद उनके भी ऊपर तक।"
"ऊपर-नीचे, सच-झूठ, हर फ्रॉड का फैसला तो अभी हुआ जाता है, सर जी। अपनी डेट ऑफ़ बर्थ डालिये, DoB फील्ड आएगा आपकी स्क्रीन पर, और अपनी आँखों का बायोमेट्रिक इस लेंस में दीजिये," एक वेबकेम को मेरी तरफ करते हुए गुप्ता जी बोले।
आँखों तक आ चुके पसीने को -- जो अब शायद ए सी की वजस से सूख रहा था -- पोछते हुए मैंने पहचान दी, और मेरे स्क्रीन पर धीरे-धीरे जानकारी उभरने लगी। नाम, डेट ऑफ बर्थ, पता, यहाँ तक सब ठीक था।
"'सुपर कम्प्यूटर' है या सुपर स्लो कंप्यूटर?" मेरे धीरज की हो रही परीक्षा पर खीझते हुए मैं बोला।
"बस लोड हो जायेगा डाटा, श्रीमान, आपकी ज़िंदगी भर की कमाई का ब्यौरा है। थोड़ा समय तो लगेगा। ये देखिये मेरे स्क्रीन पर तो हो भी गया। लोन का ही चक्कर है, जैसा मैंने कहा था। आपने कमाया कम है, खर्चा ज़्यादा है। नेगेटिव बैलेंस तो जाना ही था" औपचारिक रूप से गुप्ता जी बोले।
"कैसी बेहूदा बात कर रहे हैं आप। अभी लोन का टेन्योर बाकी है। और वैसे भी, लोन के चक्कर में मेरी जमा पूंजी क्यों खंगालेंगे भला आप?" आँखें तरेरते हुए और गुस्से से पागल होते हुए मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा।
"सर जी, उतनी पूंजी कमाई कहाँ आपने, जिससे कहीं ज़्यादा तो गँवा दी। सबको -- आप अकेले नहीं हैं," गुप्ता जी पहली बार आपे से बाहर होते हुए और मेज़ पर पड़ी घंटी बजाते हुए बोले, "सबको यही ख़ुशफ़हमी होती है: कि उनका कोई उधार बाकी नहीं, कभी कुछ नुक़सान नहीं किया, सब बढ़िया चल रहा है। संत समझते हैं अपने को, संत। लेकिन खाता बंद होने के समय, जब सारा जमा-बकाया, सच-झूठ, नफ़ा-नुक़सान सामने आता है, तब असलियत सामने आती है।"
"एक मिनट, एक मिनट, खाता बंद?" अब मेरा पारा सातवें आसमान पर था, "आपको और आपके धर्मराज जी को, दोनों को कोर्ट में घसीट लूंगा मैं। आप जानते नहीं है मुझे।"
घंटी की आवाज़ से बलशाली शरीर वाला गार्ड अंदर आ के मेरे पीछे खड़ा हो गया। गुप्ता जी को शायद अपनी फ़िक़्र ज़्यादा थी, अपने ग्राहकों की नहीं।
वर्दी-धारी गार्ड की उपस्थिति को ही अपना हथियार बनाते हुए मैं फिर चिल्लाया, "ये गुंडे बुला के मुझे डराइए मत। जवाब दीजिये! जब लोन का टेन्योर अभी बाकी है, तो कैसा खाता बंद?"
गुप्ता जी ने अपनी आखें मॉनिटर से हटाते हुए गार्ड को इशारा किया, और मेरी आँखों में झाँका, "आप हमारे दूत के साथ जाइये, बाकी नेगटिव बैलेंस वालों से मिलेंगे आप नीचे, तो शायद आप इस सच को स्वीकार कर पाएं।"
गार्ड ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा, और मैंने अपना ग़ुस्सा ग़ायब-सा होता महसूस किया।
सदमे की सी हालत में अवाक और भरमाया मेरा दिमाग़ अपने आपको बस इतना कहते हुए सुन पाया, "पहेलियाँ बुझा कर मुझे बहलाने की कोशिश ना करें, अकाउंटेंट साहब। कैसा सच?"
एक लम्बी सांस लेते हुए वे बोले, " यही कि लोन का टेन्योर बाकी ज़रूर है, श्रीमान, लेकिन आपका नहीं।"
गार्ड की मेरे कंधे पर मज़बूत होती हुई पकड़ के बीच, एक अजीब से अहसास से मजबूर होकर मैंने अपनी नज़रें चित्रेश गुप्ता -- चीफ अकाउंटेंट -- की नज़रों से हटाई। पिछले आधे घंटे का अजीबो-ग़रीब घटनाक्रम मेरी आँखों के आगे किसी फ़ास्ट-फॉरवर्ड फ़िल्म की तरह तैर गया; और अनचाहे ही, ज़ेहन में दबे कई सवाल मेरे दिमाग़ में हथौड़े की तरह बरसने लगे -
'अपने ही शहर का ये कौन सा अजीब कोना था जहाँ से मैं वाक़िफ़ नहीं था?'
'रातो-रात ये आलिशान बैंक बिल्डिंग कहाँ से तैयार हो आयी थी?'
'कौन सा बैंक भला इतना समृद्ध था कि अंतर्राष्टीय स्तर के कुश्ती पहलवानों जैसे शारीरिक सौष्ठव वाले मुस्टंडों को गार्ड ड्यूटी पर रख सके?'
'चित्रेश गुप्ता और धर्मराज ठाकुर जैसे नाम हक़ीक़त थे या किसी पौराणिक किताब के जर्जर पन्नों से जीवंत हो आये किरदार? या मेरी उपजाऊ रचनात्मकता की कोई कपोल-कल्पना?'
'मुझे क्यों याद नहीं आ रहा था कि एटीएम के अंदर आने से पहले क्या हुआ था?'
'क्या चीफ अकाउंटेंट गुप्ता के बनावटी बर्ताव के पीछे ढंपे संवादों में कोई गूढ़ार्थ भी था?'
सवाल अनगिनत थे और जवाब मिलने के बजाय, किसी पुराने ऊन के गोले की तरह, गुत्थी उलझती जा रही थी।
सोचने समझने की मेरी काबिलियत पर पड़ चुका वहम और सदमे का कुहरा आखिरकार नीचे मेज़ पर रखी, पूरी तरह लोड हो चुकी स्क्रीन, और शीशे के बाहर सड़क पर छंट चुकी भीड़ ने कुछ साफ़ किया:
स्क्रीन पर सबसे नीचे बोल्ड लेटर्स में एक फील्ड था : डेट ऑफ़ डिमाइस - तारिख आज की थी; बाहर, छनती भीड़ के बीच, मेरी बुलेट और मेरी हेलमेट के टुकड़ों से सड़क पटी पड़ी थी।
मैंने अपना हाथ फिर से पसीना पोंछने को बढ़ाया। मेरा माथा अब ठंडा था, लेकिन खून की रिसती धार उसे अब भी गीला कर रही थी...
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Also by Shikhar Sumeru -
संपूर्ण कथानक एक चलचित्र की भाँति प्रतीत होता है. बहुत मनोरंजक कहानी.
Very gripping and good read👍